गरीब भारत

भूखे बच्चों की तसल्ली के लिए, माँ ने फिर पानी पकाया देर तक!"सत्ता का सत्य उतना ही चिरंतन है, जितना सत्य की सत्ता का अनुभव. हा सत्ता के पीछे एक तरह की शक्ति क्रियाशील रहती है. मनुष्य अपनी आवश्यकताओ की पूर्ति के लिए जब कभी अपने से बाहर किसी अन्य सत्ता पर निर्भर करता है, उसे उसका मूल्य चुकाना पड़ता है. तब उसका मनुष्यत्व ईकाइयों में विभाजित होने लगता है. यह कहना भी कठिन लगता है कि उसकी अपनी एक अखंडित अस्मिता है-उसके भीतर उसकी 'अस्मिताए' कभी एक-दूसरे से अनजान, कभी आपस में टकराती हुई कायम रहती है."

Thursday 15 October 2009

खतरे का कबाड़


जहरीले कचरे से लदे एक अमेरिकी जहाज का चोरी-छिपे गुजरात के बंदरगाह अलंग पर जा पहुंचना चिंताजनक है।
यह घटना विकसित देशों के प्रदूषण को गरीब और विकासशील देशों के मत्थे मढ़े जाने के लंबे सिलसिले की ताजा कड़ी जान पड़ती है। यह अच्छा है कि केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने जहाज और पूरे घटनाक्रम की जांच का आदेश दे दिया है। पिछले दो दशकों में अलंग बंदरगाह में टूटने आए कई जहाज विवादों के केंद्र में आ चुके हैं। बाकी विकासशील देशों की तरह भारत में भी फिलहाल इस बारे में ठोस दिशा-निर्देशों का अभाव है।

पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने प्रदूषण संबंधी कानूनों की बाबत गंभीर रुख अख्तियार करने और अदालती हस्तक्षेप के पहले ही ज्यादातर मामलों में कार्रवाई करने की मंशा कई बार जाहिर की है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस जहाज को लेकर ही नहीं बल्कि अलंग में टूटने आने वाले तमाम जहाजों के बारे में साफ नियम बनाए जाएंगे और उनका पालन सुनिश्चित किया जाएगा।

गौरतलब है कि विकसित देशों में जहरीले पदार्थों को लेकर कड़े नियमों के चलते ही वहां की कंपनियां इस तरह के जहाजों को टूटने के लिए विकासशील देशों में भेज देती हैं। यह सही है कि भारत में जहाजों को तोड़ने के काम में चालीस हजार से ज्यादा लोगों को रोजगार मिला हुआ है। लेकिन यह भारत के तटों के पर्यावरण और मजदूरों की सेहत की कीमत पर नहीं होना चाहिए। अलंग इस समय दुनिया में जहाजों को तोड़ने का सबसे बड़ा केंद्र बन गया है। यहां हर साल करीब तीन सौ बड़े जहाजों के तमाम हिस्सों को अलग किया और तोड़ा जाता है।

भारत में इस उद्योग का करीब चार हजार करोड़ का सालाना कारोबार है। यहां चालीस हजार से ज्यादा मजदूर प्रदूषण के खतरनाक स्तर के बीच काम करने को मजबूर हैं। तीन साल पहले सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद फ्रांस के एक जहाज को वापस भेज दिया गया था। शायद इस वजह से इस अमेरिकी जहाज के अलंग पहुंचने तक काफी गोपनीयता बरती गई और कायदे-कानूनों को ताक पर रख दिया गया।

पर्यावरणवादी संगठनों की आंखों में धूल झोंकने की नीयत से इस जहाज का नाम तक बदल दिया गया। इस जहाज का असली नाम एसएस-इंडिपेंडेस बताया जाता है। यह एसएस-ओसिनिक नाम से पिछले डेढ़ साल से दुबई के बंदरगाह पर खड़ा था, जिसे अलंग बंदरगाह प्लेटिनम-टू का नाम देकर पहुंचाया गया है। चोरी-छिपे इसका टूटना शुरू भी हो जाता अगर यह पास में ही खड़े एक दूसरे जहाज अमीरा-एस से टकरा न गया होता। इसी के बाद मीडिया और नागरिक संगठनों का ध्यान इस जहाज की तरफ गया।

पर्यावरण और मानव अधिकारों के लिए काम कर रहे संगठनों का आरोप है कि इस जहाज में ढाई सौ टन एस्बेस्टस और दो सौ दस टन पोलीक्लोरिनेटेड बाइफेनल है। इसी साल जनवरी में अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी ने इस जहाज के स्वामित्व वाली कंपनी ‘ग्लोबल मार्केटिंग सिस्टम्स’ पर जहरीले तत्त्वों को नष्ट किए बगैर इसे निर्यात करने की कोशिश करने के आरोप में भारी जुर्माना लगाया था। लिहाजा पर्यावरण कार्यकर्ताओं की दलील में दम है.

Excerpts from Jansatta editorial
Photographs from www.ssmaritime.com

Friday 25 September 2009

एशिया का सबसे बड़ा पर्यावरण संकट

नेपाल और बिहार का सबसे बड़ा प्राकृतिक संकट उदासीनता का शिकार है। आज तक न तो केन्द्र सरकार और न ही बिहार सरकार ने यह आकलन करने के लिए कोई सर्वेक्षण किया है कि बाढ़ नियंत्रण उपायों का समाज के समाजिक आर्थिक परिस्थिति पर क्या प्रभाव पड़ा है। यही स्थिति नेपाल में भी है।

यह ध्यान देने योग्य है कि भारत सरकार ने 2004 में घोषित अपने राष्ट्रीय न्यूनतम सहमति कार्यक्रम के तहत उत्तरी बिहार के बाढ़ नियंत्रण, ड्रेनेज आदि योजनाओं को पूरा करने का संकल्प लिया था (जिसके लिए नेपाल सरकार की सहमति भी जरूरी है)उसे पुरा नही किया गया। अब 2009 के घोषणा पत्र से वह संकल्प भी गायब हो गया। उन्होंने यह भी वादा किया था कि तटबंध के मरम्मत, रखरखाव व सुरक्षा के लिए वे बिहार सरकार को आवश्यक तकनीकी सहायता भी उपलब्ध करएंगे। इस तरह की आश्वासन वाली बातें तो पिछले 60 सालों से की जा रहीं है। इससे पहले भारत सरकार ने नेपाल के जल संसाधन मंत्रालय के अंतर्गत जल आधारित आपदा निवारण विभाग के निवेदन पर 7 जुलाई 2008 को नदियों के तटबंध के मरम्मत व विकास के लिए अनुदान दिया था।

पिछले कई सालों से न सिर्फ केन्द्र सरकार ने बल्कि बिहार सरकार ने भी बाढ़ कार्यवाही योजना का गलत निर्धारण किया है।
मौजूदा समस्या का मूल कारण तटबंध ही है। पानी में फंसे लोग अपने आस-पास जमा पानी को निकालने के लिए तटबंध को तोड़ने का सहारा लेते रहते हैं। इसके पक्ष में सामान्य सोच यह है कि तटबंधों को तोड़ने से कोई अनचाही परिस्थिति नहीं पैदा होती है।

भारत में तटबंधों को तोड़ने के प्रमाण भी हैं। दामोदर नदी में 1854 में बने 32 किमी लम्बे तटबंध को 1869 में ढहा दिया गया। ब्रिटिश सरकार को बहुत जल्दी यह महसूस हो गया कि इससे बाढ़ नियंत्रण नहीं होता, तटबंधों से उपजाऊ जमीने डूब में जा रही थीं, जिसके लिए उन्हें मुआवजा देने को बाध्य होना पड़ता था। तटबंध टुटने के कारण मुआवजा देने की सबसे पहली घटना 1896 की है जब पश्चिम बंगाल के बर्दवान जिले में किसानों को 60,000 रुपये मुआवजा दिया गया।

हॉलैंड में राइन और मियूस नदी को बांधने में असफल रहने पर वहां के जलविज्ञानियों ने सुरक्षा का एक खास तरीका अपनाया है जिसे 'नदी के उन्मुक्त प्रवाह की जगह' कहा जाता है। इस नई आवधारणा न सिर्फ जानकारी युक्त चर्चा की जरूरत है बल्कि यह व्यापक राजनैतिक समर्थन पर आधारित है। ऐसे उपायों पर उत्तर बिहार के निवासियों से चर्चा करके निष्कर्ष पर पहुंचने की जरूरत है, लेकिन इसके लिए केन्द्र सरकार और बिहार सरकार के बीच आपसी सहमति की जरूरत है।

जब तक दोषी अधिकारियों एवं संस्थाओं को जवाबदेह नहीं बनाया जाएगा तब तक न सिर्फ वे पिछली गलतियां दोहराई जाएंगी बल्कि नई अवधारणाओं और रणनीतियों को लागू करना भी मुश्किल होगा। यह बात जल संसाधन से जुड़ी संस्थाओं के मूल, क्रियाकलाप, और कानूनों से साफ होती है। वे सभी बड़ी परियोजनाओं के नियोजन, डिजाइन और क्रियान्वयन के लिए ही बनी हैं। यह बात भी साफ है कि वे भागीदारी युक्त या पारदर्शी संस्थाओं के प्रति इच्छुक भी नहीं हैं। ये संस्थाएं पूरी नदी घाटी की आवश्यकताओं, संसाधनों और प्राथमिकताओं को शामिल करने में असफल रही हैं। इस तरह ''मौजूदा संस्थाओं को पूरी तरह नये सिरे से खंगालने (परिभाषित) की जरूरत है''।

ऐसे मामलों में किसी न्यायिक या प्रशासनिक जांच से आपराधिक जिम्मेदारी नहीं तय होती है, क्योंकि ऐसे आयोगों और समितियों के निष्कर्ष तो निश्चित ही होते हैं। यह तो किसी परिणाम पर न पहुंचने की नियमित प्रक्रिया है। हालांकि, न्यायमूर्ति राजेश बालिया आयोग के विचारार्थ विषय में कोसी उच्च स्तरीय समिति के बारे में स्पष्ट किया गया है, लेकिन उसकी विशेषताओं पर ध्यान देने की जरूरत है। लेकिन ऐसे आयोगों की सबसे बड़ी सीमा यह होती है कि ये समस्या के लिए जिम्मेदार मौजूदा संस्थाओं से न तो सवाल करती हैं और न तो कर सकती हैं। आयोगों द्वारा तैयार ऐसी सैकड़ों रिपोर्टों में धूल पड़ रही हैं और उन्हें दीमक चाट रहे हैं। इनमें से ज्यादातर का उपयोग चुनावों में प्रचार के लिए होता है। इस तरह, सबकी परिणति एक जैसी होती है। न्यायमूर्ति राजेश बालिया आयोग की रिपोर्ट अब तक सरकार को नही सौपी गई है। ऐसा लगता है की उसे भी अगले विधान सभा के चुनाव का इंतज़ार है

आइए इस आपदा पर भारतीय प्रधानमंत्री, बिहार के प्रधानमंत्री और बिहार के मुख्यमंत्री के बयान पर एक नजर डालते हैं। कोसी क्षेत्र के कुशहा में तटबंध में कटाव आने के बाद बिहार के मुख्यमंत्री ने 19 अगस्त 2008 को भारत के विदेश मंत्री से निवेदन किया कि वे कोसी समझौते के अनुसार नेपाल में कटाव के मरम्मत के लिए नेपाल सरकार को कानून व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए सम्पर्क करें।

नेपाल के सुंसारी जिले के लौकाही पुलिस थाना में 16 अगस्त 2008 उन असामाजिक तत्वों के खिलाफ एक प्राथमिकी दर्ज कराई गई थी जिनके द्वारा ऐसी परिस्थिति उत्पन्न की गई कि सभी इंजिनियरों को वहां से भाग जाना पड़ा।

20 अगस्त 2008 को नेपाल के प्रधानमंत्री ने स्थिति का जायजा लेते हुए कहा था कि, ''कोसी समझौता एक भयंकर ऐतिहासिक भूल थी'' और ''इसे लोग पीड़ित हैं''। समझौते की वजह से तटबंधों का निर्माण हुआ है और बड़े बाध का प्रस्ताव है। भारत के प्रधानमंत्री ने 28 अगस्त 2008 को बाढ़ग्रस्त इलाकों का हवाई सर्वेक्षण करने के बाद इस समस्या को ''राष्ट्रीय आपदा'' घोषित किया और राहत और पुनर्वास के लिए तत्काल 1000 करोड़ रुपये जारी करने की भी घोषणा की।

इन सबसे साफ है कि जमीनी स्तर पर जो भी बदलाव आए, ज्यादातर बाते वैसे ही रहती हैं। तटबंध के मरम्मत का कार्य जारी है है। ऐसे समय में उत्तारी बिहार और नेपाल में कोसी के बाढ़ क्षेत्र का दौरा करके लौटे तथ्यान्वेषण दल की मांग है कि इस पूरी आपदा पर और खासकर उत्तरी बिहार में कोसी घाटी के ड्रेनेज (जलनिकासी) पर एक श्वेत पत्र जारी किया जाय। ताकि मौजूदा नीतियों के कारण बंद हुई ड्रेनेज समस्या को हल किया जा सके। इससे समस्या और बाढ़ प्रवण क्षत्र में बढ़ोतरी करने वाली तथाकथित विपरीत हल की परिस्थतियों का पता लगना चाहिए।

सोविएत रूस सरकार द्वारा जो कुछ साइबेरियन नदियों के साथ किया उससे अराल समुद्र की जो दुर्दशा हुई है उसे याद कर और पर्यावरण संकट संकट के गंभीर परिणाम पर विचार कर बिहार सरकार को अपनी नदी जोड़ योजना को छोड़ देना चाहिए। अराल समुद्र को दुनिया सबसे बड़ा पर्यावरण संकट माना जाता है। बांध, तटबंध और उनकी मरम्मत जैसे बाढ़ नियंत्रण के उपायों से सिर्फ तात्कालिक भ्रामक राहत मिल सकती है। ऐसी परिस्थिति में नदी के बहाव क्षेत्र में बदलाव के कारकों का सूक्ष्म स्तर पर दीर्घकालीक और सावधानीपूर्वक अध्ययन की जरूरत है। यहां यह स्पष्ट करने की जरूरत है कि तटबंध के कटाव को बंद कर दने से ही समस्या का स्थायी हल नहीं हो जाएगा। परिवर्तनकारी जलविज्ञान को नजरअंदाज करने पर बांध और तटबंध की उम्र 25 साल होती है और बदलावों को ध्यान दते हुए तकनीकी सुधार करते हुए 37 साल होती है।

कोसी तटबंध में अब तक का यह आठवां कटाव था, जिसमें नेपाल के चार पंचायत, उत्तरी बिहार के 4 जिले सहरसा, सुपौल, मधेपुरा और अररिया इस बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। इनके अलावा 12 अन्य जिले पुर्णिया, खगड़िया, मुजफ्फरपुर, पश्चिमी चंपारण, सारण, शेखपुरा, वैशाली, बेगुसराय, पटना, और नालंदा भी इस बाढ़ से प्रभावित हुए हैं। एक अनुमान के अनुसार करीब 35 लाख लोग इस बाढ़ से प्रभावित हुए हैं। बिहार सरकार के रिपोर्टों के अनुसार 2007 में 22 जिलों में 48 लाख लोगों को बाढ़ के कारण सहायता की जरूरत थी। इससे साफ है कि घटना के पैमाने का अनुमान न कर पाने से इतनी बड़ी आपदा आई। बाढ़ के पानी का सबसे पहला कार्य यह होता है कि अतिरिक्त पानी की निकासी करे। लेकिन ग़लत इंजिनियरिंग हस्तक्षेप के करण ऐसा नहीं हो पाया।

अब तक न ऐसा कोई तटबंध बना है और न भविष्य में बनेगा जिसमें कटाव न आए। कोसी नदी के तटबंध में कटाव और पिछले नेपाली और भारत सरकार द्वारा बड़े बांध का प्रस्ताव के तर्क में इस बात पर ध्यान नहीं दिया गया कि कोसी को बांधा नहीं जा सकता।

अपने विशिष्ट भौगोलिक परिस्थितियों और जटिल जलविज्ञान के विशेषताओं के कारण कोसी, हिमालय और गंगा घाटी की एक ऐसी नदी है जिसके बारे में अभी व्यापक रूप से समझा जाना बाकी है। यह सही समय है कि नीति निर्माता ''प्रकृति पर नियंत्रण'' करने के अपनी पुरानी अवधारणा का त्याग करें और यह माने कि इस संकट से जो की एशिया का सबसे बड़े पर्यावरण संकट है, निपटने के लिए हमें बाढ़ और नदियों के साथ जीना सीखना होगा।

Thursday 24 September 2009

अफीम, बौद्ध मठ या बारूद

धूमिल अपनी कविता "पटकथा" में लिखते है:"मैंने अचरज से देखा की दुनिया का सबसे बड़ा बौद्ध मठ बारूद का सबसे बड़ा गोदाम है".

आज जब चीन और भारत के अखबारों में सैन्य शक्ति को नापा तौला जा रहा है, ऐसे में धूमिल की वो बात याद आ गयी जो उन्होंने सत्तर के पूर्वार्द्ध में लिखी थी. विश्व राजनीति में इस बीच अनगीनत फेर बदल हुए मगर हथियारों का बाज़ार आज भी देश की आर्थिक और सियासी हालात को तय करते है.

जलवायु परिवर्तन के मसले पर भारत और चीन में जो एकजुटता दिखाई देती है वह अगर गरीबी, बिमारी और अशिक्षा के मसले पर भी दिखाई दे तो फौजी बजट में कटौती दोनों देश अपने लिए विकसित देशो से बेहतर स्थिति पैदा कर सकते है. बारूद के बाज़ार को समाप्त करने के लिए गरीब देशो को अंततः हाथ मिलाना ही होगा. अगर तिब्बत का बौद्ध मठ बारूद के बाज़ार को ख़तम करने के लिए कोई कदम उठा सकता है तो उसका प्रयास होना चाहिए.

भारत और चीन दोनों को अफीम युद्घ से वो सबक लेना होगा जो अब तक शायद नहीं लिया गया है. ब्रिटिश सरकार और उसकी ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के द्वारा पहले और दुसरे अफीम युद्घ में चीन का हारना भारत के लिए लिए भी कम नुक्सानदायक नहीं था. चीन अपनी कमजोरी के कारण नहीं अपने हथियारों की कमजोरी के कारण हारा था. ब्रिटिश कंपनी भारत में अफीम पैदा करवा कर चीन में उसका व्यापार करती थी जो चीन के कानून के खिलाफ था. ब्रिटिश औद्योगिक और फौजी शक्ति ने चीन को अफीम से मुक्त होने से रोक दिया और पहले अफीम युद्घ (1839 to 1842) के बाद नानजिंग संधि के कारण चीन को अपने ५ बंदरगाह खोल देने पड़े थे, होन्ग कोंग को ब्रिटेन को सुपुर्द करना पड़ा और हर्जाना भी देना पड़ा. चीन से व्यापार करने की आज़ादी छीन ली गयी और इसमें फ्रांस और अमेरीका भी शामिल हो गया.

चीनी बंदरगाह पर ब्रिटिश व्यापार को लेकर ब्रिटिश सरकार और उसकी कंपनी ने फिर युद्घ किया (1856 से 1860) और चीन के विदेशी दबाब में आने का और गैर बराबरी के संधि करने के दौर शुरू हो गया. अफीम का व्यापार चीन को और उसकी खेती भारत को बर्बाद करती रही.
ये वही दौर था जब भारत भी ब्रिटिश सरकार और उसकी ईस्ट इंडिया कंपनी से युद्घ कर रहा था. यदि भाषा की समस्या नहीं होती तो १८५७ के समय चीनी सहयोग से ब्रिटिश कंपनी को तहस नहस किया जा सकता था. आज के वितीय और आर्थिक संकट में उसी मुक्त बाज़ार की गूंज सुनाई दे रही है जिस मुक्त बाज़ार के नाम पर जो कुछ चीन के साथ हुआ वही भारत के साथ भी हुआ. वही है भारत और चीन की गरीबी का असली जिम्मेदार.

जिस बारूद के गोदाम की बात हो रही है वो किसी पुराने खेल का हिस्सा है जिसे भारत और चीन के रणनीतिकारों ने शायद समझाने में काफी देर कर दी है. बारूद के गोदाम को आज भी किसी ख़ास मौके के लिए पाला पोसा जा रहा है. इसे भारत, चीन और तिब्बत को अपने ऐतिहासिक सन्दर्भ में सुलझाना होगा, इस पर ठंडा बर्फीला या गरम पानी डालना होगा तभी बारूद और अफीम का नापाक व्यापार करनेवालों को मुहतोड़ जबाब दे सकेंगे.

अब यह जग जाहिर है. कंपनियों द्वारा जनित जलवायु परिवर्तन के जिम्मेवार भी वही है. मगर धूमिल की शब्दों में "मुर्गे की बांग पर, सूरज को टांग कर" जगाने वाले और वतन के पहरेदार लोग है की अपनी "निकम्मी आदतों का लिहाफ" ओढ़कर सो गए है.

Monday 21 September 2009

भारतीय चावल विषैला: इरान

अपने देशवाशियों के लिए, ईरानियों के लिए या किसी अन्य देश को प्रदूषित अन्न मुहैया कराना सरकारी और कारपोरेट गैरजिम्मेदारी का एक घिनोना चेहरा उजागर करता है. कुछ साल पहले जब कीटनाशको को बोतल के पानी में पाया गया तो संसद और संसद के बाहर ऐसा हंगामा मचा की लगा की सरकार के होश अब ठिकाने जरुर आ जायेंगे. लेकिन प्रदुषणमुक्त भोजन और पानी को लेकर जो कौन बनी वो इतनी कमजोर बनी की उससे खेतो को उससे बाहर रखा गया. प्रदुषणमुक्त भोजन के लिए यह जरुरी था की खेत से लेकर रसोईघर तक उन सब प्रदुषण कारको को काबू में किया जाए जो कभी कीटनाशक के नाम पर, कभी रासायनिक खाद के नाम पर तो कभी प्रदूषित पानी का सिंचाई के नाम पर बेकाबू हो गया है. ऐसा नहीं हुआ और नतीजा यह है की अब भारत सरकार द्वारा की गयी लचर व्यवथा की पोल इरान की प्रयोगशाल में खुल गयी है. पहेले पानी में, फिर कोला में, फिर दूध में, फिर सब्जियों में, और अब बासमती चावल में विषैले प्रदुषण तत्वों का पाया जाना भारत सरकार की जन स्वास्थय के प्रति असंवेदनशील नीतियों का पर्दाफास करता है.

Saturday 19 September 2009

देश भर में एस्बेस्टस फैला रहा है लंग कैंसर

रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड ही नहीं, हमारे फौजी जिन घरों में रहते हैं, उनकी छत भी एस्बेस्टस की बनी हुई है। कई रिसर्च और सरकारी अध्ययनों से साबित हुआ है कि एस्बेस्टस से लंग कैंसर का खतरा बढ़ जाता है। एस्बेस्टस का एक भी फाइबर अगर फेफड़ों तक पहुंच जाए, तो इससे हुए नुकसान की भरपाई नहीं हो सकती। यही वजह है कि दुनिया भर के करीब 40 देशों सहित वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गनाइजेशन ने यह मान लिया है कि एस्बेस्टस का सुरक्षित और नियंत्रित इस्तेमाल मुमकिन नहीं है। अमेरिकन और यूरोपियन स्टडी के अनुसार हर रोज एस्बेस्टस से होने वाली बीमारी के कारण 30 लोगों की मौत हो रही है। इससे बचाव का एकमात्र उपाय इस पर बैन ही है। एक तरफ पूरी दुनिया एस्बेस्टस के गंभीर खतरों से परेशान हैं, दूसरी तरफ भारत में इसका जमकर इस्तेमाल हो रहा है।

एस्बेस्टस से होने वाले कैंसर का खतरा हम सभी पर मंडरा रहा है। वॉटर सप्लाई, सीवेज, ड्रेनेज के लिए इस्तेमाल होने वाले पाइप, पैकेजिंग मटीरियल, गाड़ियों के ब्रेक क्लच, ब्रेक शू सहित हजारों चीजों में एस्बेस्टस का इस्तेमाल हो रहा है। इन्वायरन्मंट और हेल्थ एक्सपर्ट गोपाल कृष्ण का कहना है कि फिलहाल भारत में सभी प्रकार के एस्बेस्टस (ब्लू, ब्राउन, वाइट) की माइनिंग पर बैन है। एस्बेस्टस वेस्ट का व्यापार भी बैन है। हालांकि, वाइट एस्बेस्टस के खनन पर तो पाबंदी है लेकिन इसके आयात और इस्तेमाल पर कोई बैन नहीं है। घरों ही नहीं, सरकारी इमारतों और स्कूलों में भी एस्बेस्टस का इस्तेमाल हो रहा है।

ऐसा नहीं है कि हमारे नेता और सरकारी अधिकारियों को इसके खतरे के बारे में पता नहीं है। 18 अगस्त 2003 को तत्कालीन स्वास्थ्य और संसदीय कार्यमंत्री सुषमा स्वराज ने संसद को बताया कि अहमदाबाद स्थित नैशनल इंस्टिट्यूट ऑफ ऑक्युपेशनल हेल्थ की स्टडी से यह साफ है कि किसी भी प्रकार के एस्बेस्टस के लंबे समय तक संपर्क में रहने से एस्बेस्टोसिस, लंग कैंसर और मीसोथीलियोमा का खतरा हो सकता है। 1994 में उद्योग मंत्रालय के एक ऑफिस मैमोरेंडम में कहा गया था कि एस्बेस्टस के संपर्क में आने से होने वाली बीमारियों को देखते हुए डिपार्टमंट ऐसी किसी भी नई यूनिट को इंडस्ट्रियल लाइसेंस नहीं देगा, जो एस्बेस्टस क्रिएट करेगा।

गोपाल कृष्ण कहते हैं कि भारत में ज्यादातर एस्बेस्टस का रूस और कनाडा से आयात होता है। कनाडा में खुद 'नो होम यूज पॉलिसी' के तहत एस्बेस्टस पर पाबंदी है। भारत में पिछले 4 सालों में एस्बेस्टस का इस्तेमाल 3 गुना बढ़ा है। उनके मुताबिक, जो मजदूर एस्बेस्टस से संबंधित काम करते हैं, वे तो खतरे में हैं ही, उनके अलावा उनके परिवार के लोग भी खतरे में हैं क्योंकि उनके कपड़ों में चिपक कर एस्बेस्टस उनके घरों तक पहुंचता है। मशहूर लंग स्पेशलिस्ट डॉ. एस. आर. कामथ कहते हैं कि देश भर में हुए 5 सर्वे से पता चला है कि एस्बेस्टस की वजह से सबसे ज्यादा फेफड़े की बीमारियां होती हैं। ऐसे लोगों में सांस लेने में तकलीफ, कफ, थूक के साथ खून निकलना और छाती में दर्द की शिकायत होती है। कई बार यह परमानेंट डिसएबिलिटी की वजह भी बन जाती है।

पूनम पाण्डे
नवभारत टाइम्स
http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/3616279.cms

Friday 18 September 2009

नदियों को बचाने की सरकारी कवायद

गंगा घाटी को नए सिरे से बचाने की सरकारी कवायद के तहत आगामी ५ अक्टूबर को पर्यावरण मंत्रालय ने जो बैठक बुलाई है उससे से कोई नयी शुरुवात की उम्मीद नहीं है क्योंकि नदियों को नुक्सान पहुचाने वाली नीतिया की यथास्थिति बनी हुई है। प्रधानमंत्री ने १८ अगस्त को एक सम्मलेन में कहा कि गंगा घाटी को बचाने का जो मॉडल बनाया है उसी मॉडल को अन्य नदियों पर लागू क्या जायेगा। इस मॉडल की सबसे बड़ी खामी है की यह नदी में आजतक जो नुक्सान हुए है उसको नज़रअंदाज करता है. नदी बचाने के मॉडल की सफलता इस पर निर्भर करती है की पहले अभी तक जो नुक्सान हुआ है उसका लेखा जोखा हो और नुक्सान की उदहारण देने योग्य जिम्मेदारी तय की जाय. मॉडल को कारगर बनाने की लिए जरुरी है की पुरे नदी के संरंक्षण क्षेत्र को एक ईकाई माना जाय न की टूकरे-टूकरे में विभाजित उद्योगों के प्रोजेक्ट के रूप में. नदियों की शाखाओ, प्रशाखाओ और उस इलाके के भूजल को भी नदी का अंग माना जाए. यह मॉडल अलोकतांत्रिक है जिसे लोक सभा चुनाव के ठीक पहले जल्दीबाजी अपनाया गया है. गंगा घाटी का लगभग ८० प्रतिशत भारत में है, 14 प्रतिशत नेपाल में और 4 प्रतिशत बांग्लादेश में है. इस मॉडल पर व्यापक विचार विमर्श की जरुरत है जिसमे नेपाल और बांग्लादेश से भी राय लेना सही होगा. भारत की नदिया जल-प्रदूषण और जल प्रवाह के संकट से जूझ रही है। नदियों के बचाने के लिए व्यापक बदलाव की जरुरत है।

चौदहवी शताब्दी में गंगा और गंगा क्षेत्र के लोगो के साथ जिस अन्याय की शुरुआत फिरोज शाह तुगलक के द्वारा हुई और १८५४ में अंग्रेजो द्वारा ने उसे आगे बढाया वह आज भी जारी है. गंगा बचाने के सारे सरकारी उपाय कागजी थे और है. इसमें लोगो की भागीदारी न १३९८ में थी, न १८५४ में थी न, १९८५ में थी न अब है. वो लोग जो गंगा को लेकर यदा कदा अपनी व्यथा सार्वजनिक तौर पर व्यक्त की उन्हें भी सरकारी बना लिया गया है. ऐसा गंगा एक्शन प्लान के समय भी हुआ था और इस बार भी ऐसा ही होगा.

जल की गुणवत्ता, मात्रा और भूमि का उपयोग सम्बंधित विषय हैं। इसे हम जल संग्रहण क्षेत्र से अलग करके नहीं सुलझा सकते, जो कि ब्रिटिश साम्राज्यकाल से ही चल रहा है। नदियों के संग्रहण क्षेत्र का कोई यथार्थ विकल्प नहीं है। हमारे लचर कानून व्यवस्था से जुड़ी कुछ समस्याओं और हमारे सीवेज प्लाँट की कमियों की ओर पहले ही ध्यान दिया जा चुका है। लेकिन औद्योगिककरण और शहरणीकरण के वर्तमान स्वरूप के कारण नदियों की बिगड़ती हालत की ओर अभी भी लोगों का ध्यान नहीं गया है। अगर हम सही मायनों में नदियों के प्रदूषण को कम करने में सफल होना चाहते हैं या तो हमें नियमों में व्यापक परिवर्तन करने होंगे या संपूर्ण नीति में बदलाव ही बदलाव कतना होगा।

दूसरा कारण यह भी है कि जो प्रदूषण के लिये जिम्मेदार हैं विशेषतरूप से जो समुदाय नदियों के किनारे निवास करते हैं और जो इसे कम करने में योगदान दे सकते हैं, दोनो में शक्ति संतुलन चाहिये। लेकिन ये शक्ति संतुलन वर्तमान मे पहले समुदाय- प्रदूशन कर्ता का पक्षपाती है। वर्तमान प्रणाली प्रदूषण फैलाने वालों के पक्ष में और विरोध करने वालों के विपक्ष में है। इसमें बदलाव होना चाहिये। और जो समुदाय प्रदूषण को बचाने के काम में संलग्न हैं, उन्हें इतने अधिकार मिलनी चाहिये कि वो प्रदूषणकर्ताओ के सामने डटकर खड़े हो सकें, और जो समुदाय पर्यावरण की सुरक्षा में रत हैं उनके काम को महत्व मिलना चाहिये।

पवित्र नदियों पर व्यापक तर्क-वितर्क होना चाहिये। सभी नदियों के पानी के स्रोत और उनके आस पास की ज़मीन पवित्र है। हम गंगा जैसी केवल एक या दो नदियों पर ही खुद को केंद्रित नहीं कर सकते। भारत जैसे बहुसांस्कृतिक और बड़े देशों में अलग-अलग स्थानों के लोगों लिए अलग-अलग नदियाँ पवित्र हैं। इस लिये नदियों में प्रदूषण को बचाने के लिये हमारी चिन्ता देश की सभी नदियों के लिये लोगों की सहभागिता सुनिश्चित करने के लिये होनी चाहिये। अगर कोई जबरन हमारे घर में घुसता है तो वो सीमा अतिक्रमण का अपराधी माना जाता है। औद्योगिक प्रदूषण हमारी रक्त वाहनियों में घुस कर स्वास्थ्य संकट पैदा कर रहा है।

राजनैतिक दल और राजनेता जिन्हें उद्योग और उद्योगपति ही धन देते हैं, केवल भावनात्मक और मौखिक आश्वासन ही देते हैं और ऐसे नीति परिवर्तन से मुँह चुराते हैं, जो नदियों के संरक्षण के लिये जरूरी हैं।

नदियों का संरक्षण हमारी शहरीकरण, उद्योग, जल, भूमि, कृषि और ऊर्जा नीतियों का अभिन्न अंग होना चाहिये। नदियों के किनारों के लगातार क्षरण के विपरीत परिणामों की दृष्टि में, प्राकृतिक संसाधन आधारित अंतरपीढ़ी समानता को सुनिश्चित करने के लिए मौज़ूदा नीतियों में उलटफेर के अटूट तर्क हैं। तभी हम यह सुनश्चित कर पायेंगे कि नदियों पर उनके सामर्थ्य से अधिक दवाब न डाला जाय। हमें इस भ्रम में भी नहीं रहना चाहिये कि प्रदूषण चाके किसी भी स्तर तक चला जाये, हम ट्रीटमेन्ट प्लाँट लगाकर नदियों को सुरक्षित कर लेंगे। नीतियों की जटिलता, जो ये निर्धारण करती हैं कि कितना पानी नदियों में रखना है, कितने खतरनाक रसायन नदियों मे छोडे जा रहे हैं, सीवेज और औद्योगिक प्रदूषण की कितनी अधिकता होगी, ये सभी बहुत महत्वपूर्ण है। इन सभी समस्यायों के समाधान हमारे प्राकृतिक संसाधनों के नियंत्रण की नीतियों में मूलभूत बदलाव में निहित है। बहती हुई नदी के आर्थिक महत्व को दरकिनार कर सिर्फ उसके जल प्रवाह को रोकने में आर्थिक फायदा देखने की भूल को अतिशीघ्र सुधारने की जरुरत है. गंगा के प्रवाह को भी इसी प्राण घातक आर्थिक सोच ने नुक्सान पहुचाया है।

गंगा घाटी के सन्दर्भ में प्रधानमंत्री की अगुवाई में एक बार फिर जो कदम उठाये जा रहे है उससे अंततः यही साबित होगा की नदी के हत्यारे, सरकार से ज्यादा ताकतवर है. अगर ऐसा नहीं है तो प्रधानमन्त्री गंगा नदी के हत्यारों की एक लिस्ट जारी करने का हौसला दिखाए, बताये की २५०० किलोमीटर लम्बी गंगाघाटी के इलाके को किस्तों में नष्ट करने वाले इन आतंकवादियो के साथ एक निश्चित समयसीमा में वे क्या सलूक करने जा रहे है, उन नीतियों में बदलाव की घोषणा करे जिससे गंगा सहित सभी नदिया खतरे में है और गंगा घाटी की लोगो की भागीदारी सुनिश्चित करे.