भूखे बच्चों की तसल्ली के लिए, माँ ने फिर पानी पकाया देर तक!"सत्ता का सत्य उतना ही चिरंतन है, जितना सत्य की सत्ता का अनुभव. हा सत्ता के पीछे एक तरह की शक्ति क्रियाशील रहती है. मनुष्य अपनी आवश्यकताओ की पूर्ति के लिए जब कभी अपने से बाहर किसी अन्य सत्ता पर निर्भर करता है, उसे उसका मूल्य चुकाना पड़ता है. तब उसका मनुष्यत्व ईकाइयों में विभाजित होने लगता है. यह कहना भी कठिन लगता है कि उसकी अपनी एक अखंडित अस्मिता है-उसके भीतर उसकी 'अस्मिताए' कभी एक-दूसरे से अनजान, कभी आपस में टकराती हुई कायम रहती है."

Thursday 15 October 2009

खतरे का कबाड़


जहरीले कचरे से लदे एक अमेरिकी जहाज का चोरी-छिपे गुजरात के बंदरगाह अलंग पर जा पहुंचना चिंताजनक है।
यह घटना विकसित देशों के प्रदूषण को गरीब और विकासशील देशों के मत्थे मढ़े जाने के लंबे सिलसिले की ताजा कड़ी जान पड़ती है। यह अच्छा है कि केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने जहाज और पूरे घटनाक्रम की जांच का आदेश दे दिया है। पिछले दो दशकों में अलंग बंदरगाह में टूटने आए कई जहाज विवादों के केंद्र में आ चुके हैं। बाकी विकासशील देशों की तरह भारत में भी फिलहाल इस बारे में ठोस दिशा-निर्देशों का अभाव है।

पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने प्रदूषण संबंधी कानूनों की बाबत गंभीर रुख अख्तियार करने और अदालती हस्तक्षेप के पहले ही ज्यादातर मामलों में कार्रवाई करने की मंशा कई बार जाहिर की है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस जहाज को लेकर ही नहीं बल्कि अलंग में टूटने आने वाले तमाम जहाजों के बारे में साफ नियम बनाए जाएंगे और उनका पालन सुनिश्चित किया जाएगा।

गौरतलब है कि विकसित देशों में जहरीले पदार्थों को लेकर कड़े नियमों के चलते ही वहां की कंपनियां इस तरह के जहाजों को टूटने के लिए विकासशील देशों में भेज देती हैं। यह सही है कि भारत में जहाजों को तोड़ने के काम में चालीस हजार से ज्यादा लोगों को रोजगार मिला हुआ है। लेकिन यह भारत के तटों के पर्यावरण और मजदूरों की सेहत की कीमत पर नहीं होना चाहिए। अलंग इस समय दुनिया में जहाजों को तोड़ने का सबसे बड़ा केंद्र बन गया है। यहां हर साल करीब तीन सौ बड़े जहाजों के तमाम हिस्सों को अलग किया और तोड़ा जाता है।

भारत में इस उद्योग का करीब चार हजार करोड़ का सालाना कारोबार है। यहां चालीस हजार से ज्यादा मजदूर प्रदूषण के खतरनाक स्तर के बीच काम करने को मजबूर हैं। तीन साल पहले सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद फ्रांस के एक जहाज को वापस भेज दिया गया था। शायद इस वजह से इस अमेरिकी जहाज के अलंग पहुंचने तक काफी गोपनीयता बरती गई और कायदे-कानूनों को ताक पर रख दिया गया।

पर्यावरणवादी संगठनों की आंखों में धूल झोंकने की नीयत से इस जहाज का नाम तक बदल दिया गया। इस जहाज का असली नाम एसएस-इंडिपेंडेस बताया जाता है। यह एसएस-ओसिनिक नाम से पिछले डेढ़ साल से दुबई के बंदरगाह पर खड़ा था, जिसे अलंग बंदरगाह प्लेटिनम-टू का नाम देकर पहुंचाया गया है। चोरी-छिपे इसका टूटना शुरू भी हो जाता अगर यह पास में ही खड़े एक दूसरे जहाज अमीरा-एस से टकरा न गया होता। इसी के बाद मीडिया और नागरिक संगठनों का ध्यान इस जहाज की तरफ गया।

पर्यावरण और मानव अधिकारों के लिए काम कर रहे संगठनों का आरोप है कि इस जहाज में ढाई सौ टन एस्बेस्टस और दो सौ दस टन पोलीक्लोरिनेटेड बाइफेनल है। इसी साल जनवरी में अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी ने इस जहाज के स्वामित्व वाली कंपनी ‘ग्लोबल मार्केटिंग सिस्टम्स’ पर जहरीले तत्त्वों को नष्ट किए बगैर इसे निर्यात करने की कोशिश करने के आरोप में भारी जुर्माना लगाया था। लिहाजा पर्यावरण कार्यकर्ताओं की दलील में दम है.

Excerpts from Jansatta editorial
Photographs from www.ssmaritime.com

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