भूखे बच्चों की तसल्ली के लिए, माँ ने फिर पानी पकाया देर तक!"सत्ता का सत्य उतना ही चिरंतन है, जितना सत्य की सत्ता का अनुभव. हा सत्ता के पीछे एक तरह की शक्ति क्रियाशील रहती है. मनुष्य अपनी आवश्यकताओ की पूर्ति के लिए जब कभी अपने से बाहर किसी अन्य सत्ता पर निर्भर करता है, उसे उसका मूल्य चुकाना पड़ता है. तब उसका मनुष्यत्व ईकाइयों में विभाजित होने लगता है. यह कहना भी कठिन लगता है कि उसकी अपनी एक अखंडित अस्मिता है-उसके भीतर उसकी 'अस्मिताए' कभी एक-दूसरे से अनजान, कभी आपस में टकराती हुई कायम रहती है."

Friday 18 September 2009

नदियों को बचाने की सरकारी कवायद

गंगा घाटी को नए सिरे से बचाने की सरकारी कवायद के तहत आगामी ५ अक्टूबर को पर्यावरण मंत्रालय ने जो बैठक बुलाई है उससे से कोई नयी शुरुवात की उम्मीद नहीं है क्योंकि नदियों को नुक्सान पहुचाने वाली नीतिया की यथास्थिति बनी हुई है। प्रधानमंत्री ने १८ अगस्त को एक सम्मलेन में कहा कि गंगा घाटी को बचाने का जो मॉडल बनाया है उसी मॉडल को अन्य नदियों पर लागू क्या जायेगा। इस मॉडल की सबसे बड़ी खामी है की यह नदी में आजतक जो नुक्सान हुए है उसको नज़रअंदाज करता है. नदी बचाने के मॉडल की सफलता इस पर निर्भर करती है की पहले अभी तक जो नुक्सान हुआ है उसका लेखा जोखा हो और नुक्सान की उदहारण देने योग्य जिम्मेदारी तय की जाय. मॉडल को कारगर बनाने की लिए जरुरी है की पुरे नदी के संरंक्षण क्षेत्र को एक ईकाई माना जाय न की टूकरे-टूकरे में विभाजित उद्योगों के प्रोजेक्ट के रूप में. नदियों की शाखाओ, प्रशाखाओ और उस इलाके के भूजल को भी नदी का अंग माना जाए. यह मॉडल अलोकतांत्रिक है जिसे लोक सभा चुनाव के ठीक पहले जल्दीबाजी अपनाया गया है. गंगा घाटी का लगभग ८० प्रतिशत भारत में है, 14 प्रतिशत नेपाल में और 4 प्रतिशत बांग्लादेश में है. इस मॉडल पर व्यापक विचार विमर्श की जरुरत है जिसमे नेपाल और बांग्लादेश से भी राय लेना सही होगा. भारत की नदिया जल-प्रदूषण और जल प्रवाह के संकट से जूझ रही है। नदियों के बचाने के लिए व्यापक बदलाव की जरुरत है।

चौदहवी शताब्दी में गंगा और गंगा क्षेत्र के लोगो के साथ जिस अन्याय की शुरुआत फिरोज शाह तुगलक के द्वारा हुई और १८५४ में अंग्रेजो द्वारा ने उसे आगे बढाया वह आज भी जारी है. गंगा बचाने के सारे सरकारी उपाय कागजी थे और है. इसमें लोगो की भागीदारी न १३९८ में थी, न १८५४ में थी न, १९८५ में थी न अब है. वो लोग जो गंगा को लेकर यदा कदा अपनी व्यथा सार्वजनिक तौर पर व्यक्त की उन्हें भी सरकारी बना लिया गया है. ऐसा गंगा एक्शन प्लान के समय भी हुआ था और इस बार भी ऐसा ही होगा.

जल की गुणवत्ता, मात्रा और भूमि का उपयोग सम्बंधित विषय हैं। इसे हम जल संग्रहण क्षेत्र से अलग करके नहीं सुलझा सकते, जो कि ब्रिटिश साम्राज्यकाल से ही चल रहा है। नदियों के संग्रहण क्षेत्र का कोई यथार्थ विकल्प नहीं है। हमारे लचर कानून व्यवस्था से जुड़ी कुछ समस्याओं और हमारे सीवेज प्लाँट की कमियों की ओर पहले ही ध्यान दिया जा चुका है। लेकिन औद्योगिककरण और शहरणीकरण के वर्तमान स्वरूप के कारण नदियों की बिगड़ती हालत की ओर अभी भी लोगों का ध्यान नहीं गया है। अगर हम सही मायनों में नदियों के प्रदूषण को कम करने में सफल होना चाहते हैं या तो हमें नियमों में व्यापक परिवर्तन करने होंगे या संपूर्ण नीति में बदलाव ही बदलाव कतना होगा।

दूसरा कारण यह भी है कि जो प्रदूषण के लिये जिम्मेदार हैं विशेषतरूप से जो समुदाय नदियों के किनारे निवास करते हैं और जो इसे कम करने में योगदान दे सकते हैं, दोनो में शक्ति संतुलन चाहिये। लेकिन ये शक्ति संतुलन वर्तमान मे पहले समुदाय- प्रदूशन कर्ता का पक्षपाती है। वर्तमान प्रणाली प्रदूषण फैलाने वालों के पक्ष में और विरोध करने वालों के विपक्ष में है। इसमें बदलाव होना चाहिये। और जो समुदाय प्रदूषण को बचाने के काम में संलग्न हैं, उन्हें इतने अधिकार मिलनी चाहिये कि वो प्रदूषणकर्ताओ के सामने डटकर खड़े हो सकें, और जो समुदाय पर्यावरण की सुरक्षा में रत हैं उनके काम को महत्व मिलना चाहिये।

पवित्र नदियों पर व्यापक तर्क-वितर्क होना चाहिये। सभी नदियों के पानी के स्रोत और उनके आस पास की ज़मीन पवित्र है। हम गंगा जैसी केवल एक या दो नदियों पर ही खुद को केंद्रित नहीं कर सकते। भारत जैसे बहुसांस्कृतिक और बड़े देशों में अलग-अलग स्थानों के लोगों लिए अलग-अलग नदियाँ पवित्र हैं। इस लिये नदियों में प्रदूषण को बचाने के लिये हमारी चिन्ता देश की सभी नदियों के लिये लोगों की सहभागिता सुनिश्चित करने के लिये होनी चाहिये। अगर कोई जबरन हमारे घर में घुसता है तो वो सीमा अतिक्रमण का अपराधी माना जाता है। औद्योगिक प्रदूषण हमारी रक्त वाहनियों में घुस कर स्वास्थ्य संकट पैदा कर रहा है।

राजनैतिक दल और राजनेता जिन्हें उद्योग और उद्योगपति ही धन देते हैं, केवल भावनात्मक और मौखिक आश्वासन ही देते हैं और ऐसे नीति परिवर्तन से मुँह चुराते हैं, जो नदियों के संरक्षण के लिये जरूरी हैं।

नदियों का संरक्षण हमारी शहरीकरण, उद्योग, जल, भूमि, कृषि और ऊर्जा नीतियों का अभिन्न अंग होना चाहिये। नदियों के किनारों के लगातार क्षरण के विपरीत परिणामों की दृष्टि में, प्राकृतिक संसाधन आधारित अंतरपीढ़ी समानता को सुनिश्चित करने के लिए मौज़ूदा नीतियों में उलटफेर के अटूट तर्क हैं। तभी हम यह सुनश्चित कर पायेंगे कि नदियों पर उनके सामर्थ्य से अधिक दवाब न डाला जाय। हमें इस भ्रम में भी नहीं रहना चाहिये कि प्रदूषण चाके किसी भी स्तर तक चला जाये, हम ट्रीटमेन्ट प्लाँट लगाकर नदियों को सुरक्षित कर लेंगे। नीतियों की जटिलता, जो ये निर्धारण करती हैं कि कितना पानी नदियों में रखना है, कितने खतरनाक रसायन नदियों मे छोडे जा रहे हैं, सीवेज और औद्योगिक प्रदूषण की कितनी अधिकता होगी, ये सभी बहुत महत्वपूर्ण है। इन सभी समस्यायों के समाधान हमारे प्राकृतिक संसाधनों के नियंत्रण की नीतियों में मूलभूत बदलाव में निहित है। बहती हुई नदी के आर्थिक महत्व को दरकिनार कर सिर्फ उसके जल प्रवाह को रोकने में आर्थिक फायदा देखने की भूल को अतिशीघ्र सुधारने की जरुरत है. गंगा के प्रवाह को भी इसी प्राण घातक आर्थिक सोच ने नुक्सान पहुचाया है।

गंगा घाटी के सन्दर्भ में प्रधानमंत्री की अगुवाई में एक बार फिर जो कदम उठाये जा रहे है उससे अंततः यही साबित होगा की नदी के हत्यारे, सरकार से ज्यादा ताकतवर है. अगर ऐसा नहीं है तो प्रधानमन्त्री गंगा नदी के हत्यारों की एक लिस्ट जारी करने का हौसला दिखाए, बताये की २५०० किलोमीटर लम्बी गंगाघाटी के इलाके को किस्तों में नष्ट करने वाले इन आतंकवादियो के साथ एक निश्चित समयसीमा में वे क्या सलूक करने जा रहे है, उन नीतियों में बदलाव की घोषणा करे जिससे गंगा सहित सभी नदिया खतरे में है और गंगा घाटी की लोगो की भागीदारी सुनिश्चित करे.

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