भूखे बच्चों की तसल्ली के लिए, माँ ने फिर पानी पकाया देर तक!"सत्ता का सत्य उतना ही चिरंतन है, जितना सत्य की सत्ता का अनुभव. हा सत्ता के पीछे एक तरह की शक्ति क्रियाशील रहती है. मनुष्य अपनी आवश्यकताओ की पूर्ति के लिए जब कभी अपने से बाहर किसी अन्य सत्ता पर निर्भर करता है, उसे उसका मूल्य चुकाना पड़ता है. तब उसका मनुष्यत्व ईकाइयों में विभाजित होने लगता है. यह कहना भी कठिन लगता है कि उसकी अपनी एक अखंडित अस्मिता है-उसके भीतर उसकी 'अस्मिताए' कभी एक-दूसरे से अनजान, कभी आपस में टकराती हुई कायम रहती है."

Thursday 24 September 2009

अफीम, बौद्ध मठ या बारूद

धूमिल अपनी कविता "पटकथा" में लिखते है:"मैंने अचरज से देखा की दुनिया का सबसे बड़ा बौद्ध मठ बारूद का सबसे बड़ा गोदाम है".

आज जब चीन और भारत के अखबारों में सैन्य शक्ति को नापा तौला जा रहा है, ऐसे में धूमिल की वो बात याद आ गयी जो उन्होंने सत्तर के पूर्वार्द्ध में लिखी थी. विश्व राजनीति में इस बीच अनगीनत फेर बदल हुए मगर हथियारों का बाज़ार आज भी देश की आर्थिक और सियासी हालात को तय करते है.

जलवायु परिवर्तन के मसले पर भारत और चीन में जो एकजुटता दिखाई देती है वह अगर गरीबी, बिमारी और अशिक्षा के मसले पर भी दिखाई दे तो फौजी बजट में कटौती दोनों देश अपने लिए विकसित देशो से बेहतर स्थिति पैदा कर सकते है. बारूद के बाज़ार को समाप्त करने के लिए गरीब देशो को अंततः हाथ मिलाना ही होगा. अगर तिब्बत का बौद्ध मठ बारूद के बाज़ार को ख़तम करने के लिए कोई कदम उठा सकता है तो उसका प्रयास होना चाहिए.

भारत और चीन दोनों को अफीम युद्घ से वो सबक लेना होगा जो अब तक शायद नहीं लिया गया है. ब्रिटिश सरकार और उसकी ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के द्वारा पहले और दुसरे अफीम युद्घ में चीन का हारना भारत के लिए लिए भी कम नुक्सानदायक नहीं था. चीन अपनी कमजोरी के कारण नहीं अपने हथियारों की कमजोरी के कारण हारा था. ब्रिटिश कंपनी भारत में अफीम पैदा करवा कर चीन में उसका व्यापार करती थी जो चीन के कानून के खिलाफ था. ब्रिटिश औद्योगिक और फौजी शक्ति ने चीन को अफीम से मुक्त होने से रोक दिया और पहले अफीम युद्घ (1839 to 1842) के बाद नानजिंग संधि के कारण चीन को अपने ५ बंदरगाह खोल देने पड़े थे, होन्ग कोंग को ब्रिटेन को सुपुर्द करना पड़ा और हर्जाना भी देना पड़ा. चीन से व्यापार करने की आज़ादी छीन ली गयी और इसमें फ्रांस और अमेरीका भी शामिल हो गया.

चीनी बंदरगाह पर ब्रिटिश व्यापार को लेकर ब्रिटिश सरकार और उसकी कंपनी ने फिर युद्घ किया (1856 से 1860) और चीन के विदेशी दबाब में आने का और गैर बराबरी के संधि करने के दौर शुरू हो गया. अफीम का व्यापार चीन को और उसकी खेती भारत को बर्बाद करती रही.
ये वही दौर था जब भारत भी ब्रिटिश सरकार और उसकी ईस्ट इंडिया कंपनी से युद्घ कर रहा था. यदि भाषा की समस्या नहीं होती तो १८५७ के समय चीनी सहयोग से ब्रिटिश कंपनी को तहस नहस किया जा सकता था. आज के वितीय और आर्थिक संकट में उसी मुक्त बाज़ार की गूंज सुनाई दे रही है जिस मुक्त बाज़ार के नाम पर जो कुछ चीन के साथ हुआ वही भारत के साथ भी हुआ. वही है भारत और चीन की गरीबी का असली जिम्मेदार.

जिस बारूद के गोदाम की बात हो रही है वो किसी पुराने खेल का हिस्सा है जिसे भारत और चीन के रणनीतिकारों ने शायद समझाने में काफी देर कर दी है. बारूद के गोदाम को आज भी किसी ख़ास मौके के लिए पाला पोसा जा रहा है. इसे भारत, चीन और तिब्बत को अपने ऐतिहासिक सन्दर्भ में सुलझाना होगा, इस पर ठंडा बर्फीला या गरम पानी डालना होगा तभी बारूद और अफीम का नापाक व्यापार करनेवालों को मुहतोड़ जबाब दे सकेंगे.

अब यह जग जाहिर है. कंपनियों द्वारा जनित जलवायु परिवर्तन के जिम्मेवार भी वही है. मगर धूमिल की शब्दों में "मुर्गे की बांग पर, सूरज को टांग कर" जगाने वाले और वतन के पहरेदार लोग है की अपनी "निकम्मी आदतों का लिहाफ" ओढ़कर सो गए है.

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